Tuesday, October 8, 2013

"शादी"

मेरे लाख ना कहने के बाद भी विनोद दरवाजे से बाहर जाते हुये कह गये ’’सरिता एक बार और सोचना। मुझे यकीन है तुम हां कहोगी’’। बच्चे पहले ही जा चुके थे अब मैं घर पर अकेली थी मगर आज पहली बार इस अकेलेपन का अहसास हो रहा था। विनोद के जिद भरे सवाल ने मेरी वर्षों से भरी कंुठा को जगा दिया था और उनका यह सवाल मुझे अतीत में झांकने को मजबूर कर रहा था। उनके इन सवालों ने मुझे 20 साल पुराने अतीत में धकेल दिया।

 उस दिन हल्की सी उदासी और बहुत सारी खुशी मेरे चहरे पर बढती जा रही थी, कई नए नए सपने मेरी आँखों में अपना घर बनाते जा रहे थे, और ये सब लाजमी था, लम्बे इंतजार के बाद मेरा 11वीं क्लास का रिजल्ट जो आने वाला था, मैं बहुत खुश थी बस चंद घंटो में ही मेरे हाथ में मेरा रिजल्ट आने वाला था, मैं इस बात के लिए परेशान नहीं थी की रिजल्ट कैसा होगा, पास तो मैंने होना ही था, हर परीक्षा देने वाला जनता है वो पास होगा या फेल। उस दिन सुबह में जल्दी उठ गयी, खुसी खुसी और जल्दी जल्दी माँ के साथ रसोई का काम निपटाया बस कुछ देर में पापा के साथ स्कूल को निकलना ही था कि पापा बोलो ’’घर में कोई मेहमान आने वाला है, तुम अकेली चले जावो’’ आजतक पापा हमेशा रिजल्ट लेने मेरे साथ आये थे, घर में कौन आने वाला था मुझे नहीं पता था, मैं थोडा सा मुंह टेढ़ा किया और फिर संकरी संकरी गलियों से, फिर चैड़ी सड़क से होते हुए और उछलते कूदते स्कूल चली गयी.

मैं स्कूल थोडा देर से पहुंची, सब को रिजल्ट पता चल चुका था, कई चहरे मुझे एक साथ दिखे, जो पास हो गए थे, उनके हंसते चहेरे, जो फेल हो गए थे उनके मुरझाये या फिर रोते चहरे, और जिनके मार्क्स कम थे उनके टेंशन से भरे चहेरे, मैं जल्दी से अपने टीचर के पास गयी, पैर छुए और रिजल्ट लेके बहार आ गयी, रिजल्ट ठीक था जो सोचा था उतना ही था, क्लास में थर्ड आई थी मैं लेकिन रिजल्ट आने की खुसी की जगह मेरे दिमाग में कुछ और ही चल रहा था कि ’’आखिर घर पे कौन आने वाला था जो बाबा मेरे साथ नहीं आये?’’

मैं जल्दी ही घर पहुँच गयी, और भागते हुए रसोई में गयी और माँ पर जा के लिपट गयी, और माँ ने भी बड़े जोर से गले लगा लिया। माँ बाप की लिए बच्चों की छोटी छोटी उपलब्धियां भी युद्ध जीत कर आने से बड़ी होती है, मैं उच्छलना चाहती थी कूदना चाहती थी मगर माँ ने रोक दिया, वो बोली ’’ध्यान से बेटा, मेहमान बैठे है अंदर, ये चाय उन्हें दे आ और सर पर चुनरी रख ले’’ मैंने माँ को गौर से देखा क्योंकि ये पहला मौका था जब वो मुझे कहा रहीं थी मेहमानों को चाय देने के लिए, क्या बजह थी क्यों वो सोचने लगी थी की मैं बड़ी हो गयी या फिर कुछ और बात है मैंने चाय की प्लेट उठाई और जल्दी से अन्दर को चली गयी, मैं खुस थी कि पापा से अपनी खुशियाँ बाटूंगी।

मैं जितनी जल्दी रसोई से निकली, उतनी तेजी से जाकर हाल के गेट पर रुक गयी, हाल से बड़ी जोर जोर से ठहाकों की आवाजें आ रही थी, मैंने परदे के कोने से झांक के देखा तो पापा के साथ और भी कुछ लोग बैठे थे, शायद में उन्हें जानती थी, मैं इससे पहले कदम अन्दर बढाती पापा जोर से ठहाके मरते हुए बोल जब बोले ’’राठौर साहब अब तो लड़की आपकी ही है, जब आपकी मर्जी हो अपने घर ले जाओ’’ पापा की बात सुनकर में सहम सी गयी मेरे पैर अचानक से रूक गये। मैं कुछ समझ पाती इससे पहले मां ने मुझे अचानक पीछे से छुते हुये कहा ’’चल बेटा अन्दर चल’’। हाल मे दस्तक देते ही मेरी दिल की धड़कन बहुत तेज हो गयी मुझे कुछ गलत आभास होने लगा था। मैंने सर झुका कर सब का नमस्ते किया ओर चाय के प्यालों से भरी ट्ररे को टैबल पर रख दिया। मैं वहां से बाहर आना चाहती थी मगर मां ने मुझे सोफे पर बैठने को कह दिया। पिता जी ने मरी तरफ देखते हुये कह दिया ’’राठौर साहब यही है हमारी राज दुलारी’’। सब लोग मुझे देखे जा रहे थे बस एकटक। और आखिरकार पापा सोफे के आखिर में बैठे मुझ से लगभग 8 साल बडे किसी लडके की तरफ देख कर बोले ’विनोद बेटा देख लो लडकी’। और उसके बाद बातें और रस्में जैसे चलती हैं वेसे ही चलती गयी। मैंने घर वालों के सामने अपनी बात रखनी चाही मगर सुनी नही गयी। हां एक साल और चन्द महीनों का समय दिया गया मुझे मेरी 12वीं की पढायी पूरी करने के लिये। शायद वो भी सिर्फ इसलिये कि पापा गर्व से कह पायें कि हमने अपनी बेटी को इन्टरमीडिएट तक पढाया है।

मै क्लास में हमेशा थर्ड आती थी। मगर उससे क्या, सपने तो फस्र्ट आने वाले के भी होते हैं और थर्ड आने वाले के भी। मेरे भी सपने थे, बहुत आगे तक पढना, अच्छी सी नौकरी करना और जिन्दगी मे आत्म निर्भर बनना। मगर यहां तो मैं एक बोझ बन गयी थी जिसे एक कन्धे से दुसरे कन्धे में रखा जा रहा था।
मैं कब अपने घर में ही परायी होने लगाी थी, मै कब नादान बच्ची से बड़ी हो गयी थी और उन्ही कन्धों पर बोझ हो गयी थी जिन कन्धों पर कल तक में खेल रही थी, कुछ पता ही नहीं चल रहा था। आखिर मेरी उम्र ही कितनी थी सिर्फ 17 साल।

मैंने मां से कई बार आपत्ति जतायी मगर हर बार इक ही जबाब मिला ’’तू लड़की है, लड़कीयों की तरह घर परिवार की सोच और तेरी सगायी हो गयी अब पढायी अपने घर जा के करना। वो पराये नहीं हैं’’ कौन कितना पराया था समझ नहीं आ रहा था जिन्होंने जन्म दिया वो तो समझ नहीं पा रहे थे तो और क्या समझते?

मेरी उधारी जिन्दगी का समय खत्म हो गया था मै बारहवीं पास कर चुकी थी वो भी अच्छे नम्बर से। अब उम्मीद दुसरे पाले मे खड़े सुसराल वालों से थी जो मेरा अपना घर होने वाला था। यह सोच कर मैं अपनी शादी के जश्न में शामिल हो गयी। समय बीतता जा रहा था मगर मैं बदल नहीं पा रही थी इन सब में अच्छी बात ये थी कि विनोद का स्वभाव हमेशा ही अच्छा रहा। जिसके चलते मैंने अपनी सोच और इच्छाओं का प्रस्ताव घर की संसद में कई बार रखा, मगर हर बार बहुमत जुटाने में असफल रही। अवला नारी, मेरी जिन्दगी अब मेरी नहीं थी पारिवारिक हो गयी थी। मुझे परंपराओं, सस्ंकारों और न जाने कितने सर्कीण विचारों का चैकीदार नियुक्त कर लिया गया था। सही कहू तो मुझे महिला विरोधी विचारघाराओं की रखवाली करने की सरकारी नौकरी मिल गयी थी। बस इसी के साथ जिन्दगी आगे बढने लगी।

दरवाजे की घण्टी बजी मैंने जल्दी से उठकर दरवाजा खोला। मेरी बेटी वन्दना घर के अन्दर आयी और मुझ पर जोर से झल्लायी। ’’क्या मम्मी कितनी देर से घण्टी बजा रही थी’’। मैं अपने अतीत मे इस तरह वह गयी थी कि मुझे पता ही नहीं चला पांच घण्टे कब बीत गये। दिन के 2 बज गये थे मेरा बेटा करन भी आने ही वाला था क्लास से। और चार घण्टे बाद विनोद भी आने वाले थे आफिस से घर। और वो सवाल एक बार फिर मेरे आगे दस्तक देने वाला था जो विनोद मुझ से सुबह कर के गये थे। मेरे अतीत का फ्लैश बैक कई बार मेरे आखों में चल रहा था। मैने मन ही मन सोच लिया था कि विनोद के लिये मेरा जबाब ना होगा चाहे कुछ भी हो जाये। मैं अपनी तरह अपनी बेटी के अरमानों को नहीं मिटने दूंगी। मुझे उसे परम्पराओं और रूढिवादिता का चैकीदार नहीं बनाना था। मुझे 18 साल में उसकी शादी नहीं करनी थी।

चार घण्टे से ज्यादा का समय गुजर चुका था विनोद अभी तक आफिस नहीं पहुचे थे मुझे यही लगा शायद नाराजगी ज्यादा बढ गयी है और बढे भी क्यों न हर कोई उम्मीद रखता है कि उसका हमसफर हर फैसले में उसका साथ दे। हां विनोद ने मुझे हमेशा खुस रखने की कोशिस की थी हां कोशिस थोडी देर मे सुरू हुयी जब मेरे अरमान मिट्टी में मिल चुके थे। मैं संस्कारो या सभ्यताओं से नही भागना चाहती थी मगर ये सब चीजें जरूरी तो नहीं घर पर रह कर ही पूरे होती हैं काम करने वाली, आफिस जाने वाली महिलायें भी संस्कारी होती हैं शभ्य होती हैं। मै बडा अजीब सोच रही थी। इन्ही सपनों के चलते कल रात विनोद से बडी बहस भी हुयी थी। सही तो थी मै सपने टूट जाना वो भी बिना आपकी गलती के, हाथ पैर टूटने से ज्यादा बुरे लगते है। मैं अपनी ही जिन्दगी पर गुस्साये इससे पहले कुछ और सोच पाती कि दरवाजे की घण्टी बज गयी। मेरे चहरे पर रौनक आ गयी। मै भी इन्तजार कर रही थी विनोद का। ये भी सच था कि जितना मुझे ये शादी नापसंद थी उतना ही प्यार मेरे और विनोद के बीच में था। जिंदगी का अच्छा पहलू यही था या हो गया था पता नही लोग कहते हैं साथ रहकर प्यार अपने आप ही हो जाता है।

मैने दरवाजा खोला विनोद अन्दर आ गये मंै खुस भी थी और चिन्तित भी कि अब फिर सवालाों और जबाबों का द्वौर सुरू होगा। ’’आज बहुत लेट हो गये?’’ मैने पानी का गिलास विनोद की तरफ बढाते हुये कहा। ’’हां कुछ काम निपटाना जरूरी था आफिस में’’ विनोद ने मेरी चहरे पर प्यार से जबाब दिया और एकटक मुझे देखने लग गये। मुझे तो यही लगा शायद अपनी बात मनवाने के लिये मश्का लगा रहे है फिर भी मैने शर्माते हुये पूछा ’’क्या है?’’
’’थेंक्स’’ वो बोले।
’’किसलिए’’ मैने जिज्ञासा से पूछा।
’’मैने फैसला बदल लिया। सब को मना कर दिया है मैंने’’ वो मुस्कराते हुये बोले ’’खुस हो ना तुम?’’
विनोद के बात ने मुझे इतना खुस कर दिया था शायद ही मै शादी के बाद पहली बार इतनी खुस हुयी थी। मेरे सपने एक बार फिर जीवित हो गये थे। मुझे अन्दर ही अन्दर खुद के लिये यह अहसास हुआ कि मै जिन्दगी मे कुछ कर पायी। बस दिल मे एक ही बात आ रही थी काश मेरी मां ने मेरी सपनों को समझा होता काश वो मेरे लिये लड़ी होती और काश औरत औरत का ददे समझती और उससे लडती। कि काश----------------------------


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