Wednesday, April 20, 2011

..........अजनबी शहर .............

बारहवीं की पढाई ख़त्म करने के बाद दिल में कई सपने लिए मोहन शहर को आ गया, गरीब माँ बाप ने काफी पढाई करवा ली थी अब उसे घर की रोजी भी कमानी थी और अपनी आगे की पढाई भी देखनी थी| अब तक की पूरी जिंदगी गाँव के पहाड़ो और नदियों के बीच गुजारने के बाद मोहन को शहर की जिंदगी कुछ ज्यादा ही बदली नजर आ रही थी, कई चीजे जो एकदम बदल गयी जैसे गाँव की चिड़ियों के शोर मछरों के शोर में बदल गया, और जहाँ सुबह पेट खाली करने दूर खेतों में जाना पड़ता था, उसकी जगह किचेन के बगल में टोइलेट, वो अलग बात थी की उसकी लाइन खेतों के रास्तों से कई लम्बी थी, ऐसे कई और चीजें भी गयी थी लेकिन कई ऐसे चीजे भी थी, जिनके बदले में सिर्फ अकेलापन ही मिला था, शहर के लोग गाँव के लोगों की तरह कहाँ अपनापन दिखाते है, पर उसे अपनापन नहीं अपनी मंजिल के रास्ते और उन सपनो के रास्ते ढूँढने थे जो उसने देखे थे और उसके माँ बाप ने देखे थे| कुछ पैसे साथ में लेके आया था तो एक सस्ता सा कंप्यूटर का कौर्स भी शुरू कर लिया था उसने, और कुछ दिनों में एक नौकरी भी मिल गयी थी रात की, तनख्वाह ज्यादा नहीं थी, मगर काफी थी 3500 रुपये महीना, कम फैशन करके, सस्ते में गुजरा चलाकर कुछ पैसे बच जाते थे मोहन के जो वो घर भेज देता था| जोड़, घटाना, गुना, भाग सारा गणित लगा कर अगर देखा जाया तो सब ठीक ही चल रहा था| लेकिन ये उसकी मंजिल नहीं थी|
कुछ महीने इस शहर में और बीत गए थे मोहन को, अब वो काफी अच्छी तरह जान चूका था इस बड़े शहर को, लेकिन शहर को जानने के लिए उसने धक्के बहुत खाए थे, अगर कभी किसी से अशोक नगर का रास्ता पूछा तो किसी ने अशोक विहार भेज दिया और न्यू कैलाश नगर के बदले पुराने कैलाश नगर भेज दिया गया, अगर किसी जवान लडके लड़की से मुग़ल गार्डेन के बारे में पूछा तो जबाब मिला "प्यारे बुद्धा गार्डेन के बारे में पूछता तो सब बता देते"
खैर जो भी हो, समय इन्सान को सब सिखा देता है और मोहन भी समय से बहुत कुछ सीख चूका था, कोर्स ख़त्म हो चुका था, एक अच्छी सी जॉब भी मिल गयी थी सेलरी ज्यादा नहीं थी पर कंपनी अच्छी थी, कई बुरे तो बहुत ही अच्छे दोस्त मिल गए थे उसे, लेकिन इन सब बातों के बीच मोहन एक चीज नहीं सीख पाया जो बहुत जरूरी थी, झूठ बोलना या फिर यूँ कहें की गलत बात से नजर हटा देना, जो इस बड़े शहर के लिए बहुत जरूरी थी, यहाँ लोग गलतियाँ कम करते है लेकिन समाज में होने वाली गलतियों से नजरें अक्सर कर लेते है और यही तो है इस शहर में जीने का महामंत्र|
वो सुबह कुछ अलग नहीं थी और न ही मोहन ने कुछ अलग किया था वही पुराना, सुबह उठा, नहाया फिर नाश्ता और लंच एक साथ तैयार कर के घर से ऑफिस के लिए निकल गया, रास्ते में फिर अपने दोस्त विजय से मिला लेकिन विजय के लिए भी ये सुबह अलग नहीं थी दोनों रोज की तरह कुछ देर बस का इंतजार करने के बाद बस में चढ़ गए|
बस एक भीड़भाड़ से भरे इलाके से निकल कर मेन रोड पे आ गयी, बस में शिष्टाचार तो जैसे बस की सीट के नीचे दुबक के बैठ गया था, बुजर्ग लोग खड़े थे वो बात अलग थी की ये उनकी खड़े होने की उम्र नहीं थी, और जिनकी थी वो जवान लड़कियाँ और लड़के बस की सीटों पर आराम फरमा रहे थे| इस भीड़ से भरे महौल्ले से निकलते हुए बस कई जगह रुकी, कई सवारियां उस पर सवार हुई, कुछ नए चेहरों के साथ बाकी पुराने चहरे मोहन और विजय इन सब को पहचानने लगे थे, बस में कई बार छीना झपटी, धक्का मुक्की, कई बार तो जेब भी साफ हो जाती थे लेकिन ये सब उन दोनों ने सिर्फ सुना था न देखा था और न कभी उनके साथ ये सब हुआ था|
"भाई रे थोडा आगे खिसक जा" एक धक्का सा मोहन को लगा और साथ में ये कड़वे से शब्द|
विजय ने कोई जबाब नहीं दिया, सिर्फ आगे को खिसक गया, न उसे किसी से लड़ना था न बहस करनी थी| बस अब मेन रोड का सफर तय करने के बाद फिर से एक भीड़ वाले इलाके में से गुजरने लगी बस में धक्का मुक्की कुछ ज्यादा बढ गयी|
विजय और मोहन आस पास के ही ऑफिस में काम करते थे, तो बस का सफ़र भी दोनों का एक साथ होता था, लेकिन अभी उनका स्टॉप आया नहीं था, फिर भी ये भीड़ उन्हें धकेलते हुए दरवाजे के पास ले गयी, कम चोडी रोड, भीड़ से भरी हुई, बस की रफ़्तार कुछ कम हो गए दोनों तरफ के दरवाजे खुले हुए थे अचानक कोई जोर से विजय को धक्का देता हुआ गेट से बहार को कूदा, विजय समझ गया कुछ तो गलत हुआ है, उसने अपनी जेब पर हाथ लगाया "मोहन वो मेरे पैसे निकाल के भाग गया" विजय चिलाता हुआ बस से बाहर कूद गया, विजय के बस से कूदते ही बस में शोर हो गया, मोहन ने बस रोकने के लिए कहा मगर जल्दी से बस रुकी नहीं, जेबकतरे के साथ भागने की कोशिश में था मगर मोहन ने उसे अंदर की ओर खिंचा लेकिन सारी भीड़ केवल तमाशा देखती रही काफी देर तक दोनों के बीच में जंग चलती रही मगर आख़िरकार जेबकतरा मोहन पर हल्का सा चाकू का वार करके भाग गया, आखिरकार बस रुक ही गयी, विजय भी हांफता हुआ बस के पास पहुँच गया खाली हाथ, और कमाल तो देखिये पुलिस भी घटना स्थल पर एक मिनट से पहले पहुच गयी, मोहन जेबकतरों को अच्छी तरह से पहचानता था जो विजय की जेब से दस हजार रुपये लेकर भाग गए वो वही लोग थे जो जानबूझकर उसके घर के पास के बस स्टॉप के पास में हमेशा भीड़ जमा कर बैठे रहते थे, विजय के लिए वो सिर्फ दस हजार रुपये नहीं बल्कि उसके घरवालों की लाखों उम्मीदें, उसके भाइयों की स्कूल की फीस थी, एक सवाल था जिसका जवाब उसे घर वालों को देना था| कुछ देर में भीड़ जमा हो गयी पुलिस वाले ने जांच शुरू कर दी
"आप पहचानते हैं उन्हें" पुलिस वाले ने विजय से पूछा|
"सर मैं जानता हूँ उन्हें" मोहन ने पुलिस वाले की आँखों में झांककर कहा
"और किसने देखा" पुलिस वाले ने भीड़ की तरफ देखते हुए कहा, लेकिन किसी ने जवाब नहीं दिया
मोहन ने एक आश्चर्य भरी नज़रों से सारी भीड़ को देखा मगर किसी ने जवाब नहीं दिया, ऐसा नहीं था की बस में सवार भीड़ मोहन को जानती नहीं थे, मोहन एक एक कर सब को देखता रहा बगल में खड़ी उस लड़की को जिसको एक दिन उसने हाथ पकड़ कर बस में चढ़ाया था, उस 50-55 साल के इंसान को जिसके पास छुट्टे न होने पर एक दिन मोहन ने उसकी टिकट खुद ले ली थी, उन बुजर्ग लोगों को भी जिनके लिए रोज वो अपनी सीट छोड़ देता था, और उन जवान लड़कों को जिनके साथ उसकी दोस्ती सी हो गयी थी, लेकिन इस शहर में इतना भाई चारा कम पड़ गया| फिर उसने विजय को देखा, पुलिस वाले को देखा और एक गहरी साँस लेकर अपना सर खुजलाने लगा|
"जब तक मैने देखा वो भाग गया, चेहरा नहीं देख पाया मैं उसका" भीड़ में से किसी ने कहा, वो वही आदमी था जो गेट के पास सब कुछ देख रहा था मोहन के दिल में आया कि एक खींच के उसके कान पर दे मगर मजबूर था|
"आप थाने चलिए मेरे साथ" पुलिस वाले ने विजय और मोहन को देखते हुए कहा|
और फिर शुरू हो गए थाने के चक्कर, पुलिस ने भी कुछ नहीं किया, जिन्होंने जेब लूटी थी वो कुछ दिन के लिए गायब हो गए और उनके साथी अब भी मोहन और विजय को घूरते थे, लेकिन दोनों मजबूर एक अजनबी शहर में क्या कर सकते थे, ये शहर तो यहाँ के रहने वालों के लिए भी अजनबी है फिर वो तो बाहर से आये थे|
मोहन विजय के वो पैसें तो वापिस नहीं ला पाया, मगर कई चीज खो चुका अच्छाई से विश्वास, अपने ऑफिस में अपनी तर्रक्की "कंपनी आपको अपने काम के पैसे देती है न कि दूसरों कि भलाई करने के " यही कहा गया था उसे ऑफिस में| और जो लोग उसदिन खुदगर्ज हो गए थे वो लोग भी सर झुका के बात नहीं कर रहे थे, अब उसने उस बस से जाना भी छोड़ दिया.
समय बीत गया इस अजनबी और बड़े शहर में लगे घाव अब धीरे धीरे भरने लग गए, और इस शहर में जीने का महामंत्र भी वो सीख गया था, आखें बंद करके चलने का, और अच्छी जॉब मिल गयी थी, मोटर साइकिल भी खरीद ली थी अगर लाइफ की अकाउंट बुक देखें तो लाभ वाला हिस्सा ज्यादा बढ़ गया था, खुशिया जो मिलती जा रही थी घर पर शादी की बातें भी होने लगी थी, और अब विजय भी उन सब बातों को भुला चूका था, घर वालों को कहीं से जुगाड़ कर के पैसे भेज दिए थे आजतक उन्हें नहीं बताई वो बात.
मोहन उस दिन ऑफिस से छुट्टी पर था, कुछ काम था उसे कोलेज केम्पस में, वो सुबह घर से निकला, केम्पस में अपना काम निपटाया और फिर वापिस घर आ गया, लंच किया और फिर कुछ देर के लिए सो गयी, नींद गहरी आ गई, लेकिन कुछ देर बाद दरवाजे की घंटी की आवाज जोर जोर से उसके कानों में गूंजने लगी, उसने दरवाजे खोले तो दरवाजे पे एक लड़की खड़ी थी.
"शायद आप मुझे पहचानते हैं" वो लड़की कुछ देर मोहन को देखने के बाद बोली,
"शायद" मोहन ने कुछ याद करते हुए कहा
"सिर्फ शायद, आप भूल रहे हो, सुबह जो कुछ भी मेरे साथ आपने सब कुछ देखा था, जब उन लोगों ने धक्का दे कर मेरी गले की चैन खिंच कर भाग गए थे, आप वहीँ दूर से देख रहे थे आपने कुछ बोला तक नहीं, आपने उन्हें देखा उनकी बाईक का नंबर भी देखा होगा फिर भी आपने पुलिस को कुछ बताया भी नहीं" लड़की की आँखों में गुस्सा था|
"नहीं मैंने कुछ नहीं देखा था, वैसे भी मुझे इन सब बातों से कोई मतलब नहीं है, सॉरी मैं कुछ नहीं कर सकता अगर आपको कुछ और काम हो मुझ से तो आप अन्दर आकर बता सकती है" मोहन अपनी बात ख़त्म करके अपने घर के अंदर चला गया|
"झूठ बोल रहे हो तुम, डरते हो न" वो लड़की कमरे में घुसते हुए चिल्लाई
"हाँ झूठ बोल रहा हूँ, और मैं सच बोलना भी नहीं चाहता, दुबारा गवाही नहीं देना चाहता मैं, और फिर दूं भी क्यों" मोहन पलटकर उसकी तरफ बढ़ा|
"इंसानियत के लिए, आप का ये फर्ज नहीं है, मैं आपके पास में ही रहती हूँ, किस बात के पडोसी हैं आप" वो इंसानियत का पाठ ऐसे इन्सान को समझा रही थी, जिसके वो जख्म अभी भी हरे थे आज तो कुछ और हरे हो गए थे जो जख्म उसे इस शहर के अकेलेपन ने दिए थे|
"हाँ सही कहती हो तुम, लेकिन दो साल पहले, भी तुम मेरी पडोसी थी और इन्सान ही थी, जब उसदिन बस में मेरे दोस्त की जेब खाली कर दी गयी थी, तब आपको इंसानियत नहीं सूझी थी" मोहन को लगा जैसे उसने ये छुट्टी अपने जख्म हरे करने के लिए ही की थी|
मोहन की बात सुनकर लड़की का सर झुक गया, मोहन पलट कर खिड़की के पास गया, कुछ देर बाहर झाँकने के बाद फिर से बोलने लगा, उसे पहली बार किसी मुजरिम पर दिल की भडास निकलने का मौका मिला|
"मैं उस दिन एक आस भरी नज़रों से सारी बस की सवारियों को देख रहा था कोई तो आगे आएगा मगर सबने मुह फेर लिया, उस दिन से मैं इस शहर मैं जिंदगी जीने का नजरिया बदल दिया, आपके साथ जो कुछ भी हुआ उस पर मुझे बहुत अफ़सोस है, मगर आज आपको भी ये अहसास हो गया होगा की हमारी एक खुदगर्जी से दूसरा कितना टूट जाता है, उसकी जिंदगी जीने के रस्ते बदल जाते है, उसदिन आप भी उसी बस में सवार थी अगर आपने हिम्मत की होती, इस खुदगर्ज शहर की जिंदगी से हटकर सोचा होता तो आपके साथ ऐसा होता ही नहीं, शायद कई और लोगों के साथ भी, उसदिन मैंने पहली बार अच्छे काम की सजा पाई थी, और अगर मैं इंसानियत के रास्ते पे चलकर एक बार आपकी बात मान भी लेता हूँ तो उससे क्या हो जायेगा, इक राय मैं तुम्हे देता हूँ दो चार दिन हाथ पैर मारोगे और फिर थक जावोगे ऑफिस और घर में बातें सुनोगे, लोग बातें बनायेगे इससे अच्छा यह है की चुपचाप घर बैठ जाओ और सब भूल जाओ"
मोहन को कोई जबाब नहीं मिला उससे पीछे मुड कर देखा तो कोई जबाब देने वाला ही नहीं था वो लड़की जा चुकी थी, मोहन ने बाहर आकर बालकोनी से नीचे झाँका तो बाहर तेज धुप थी और दूर दूर तक कोई नहीं था|
वो लड़की उसकी बात सुने बिना ही लौट गयी थी, उसके अंदर हिम्मत भी नहीं थी ये सब सुनने की, ये शहर सिर्फ शहर ही होता अजनबी शहर नहीं अगर हम ये जान लेते की दूसरों की छोटी छोटी प्रोब्लम्स शायद हमारी बड़ी प्रोब्लम्स हो सकती है, अगर हम इक दुसरे की मदद करना नहीं भूलते तो कोई दूसरी गवाही देने से नहीं डरता|

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