खुद की चिता जला दी है अब कुछ अरमानो के साथ में।
आखरी मंजिल मिलने तक ग़ालिब अब मैं नहीं मारूंगा||

"कोशिशों की जंग में अगर मैं खो दूं, ये नश्वर शरीर,
तो काली रात के अंधेरों में ही जलाना, मेरी चिता को,
मैं आखरी दम तक अंधेरों में दिए जलाना चाहता हूँ"

||दो अल्फाज कह देता हूँ तुजसे कि अब मैं कुछ कहूँगा नहीं।|
॥गर किा हो इश्क दिल से कभी तो, ख़ामोशी पढ़ लेना मेरी॥

एक दृश्य, टेहरी बाँध के नजदीक

यह बाँध गंगा नदी की प्रमुख सहयोगी नदी भागीरथी पर बनाया गया है। टिहरी बाँध की ऊँचाई २६१ मीटर है जो इसे विश्व का पाँचवा सबसे ऊँचा बाँध बनाती है।

Saturday, April 23, 2011

अधूरी साजिश

छह महीने बीता चुका था मैं तन्हाई में, अकेलेपन में| मुझे अच्छी तरह याद है वो दिन जब वो मुझे छोड़ के गयी थी यही तो दिन था वो, 5 दिसम्बर, एक बात और थी, ये बात सच्ची थी या फिर मैं अपने दिल को धोखा दे रहा था कि वो मुझे छ महीने बाद भी प्यार करती थी और मेरी भलाई के लिए मुझे छोड़ के गयी| लेकिन उस दिन जब छ महीने बाद उसका हंसता चेहरा मेरे सामने आया तो मेरे दिल ने मुझे बार बार कहा जो तू सोचता है वो झूठ है कब तक इस झूठ में जियेगा, उसका हँसता हुआ चेहरा जो मुझे हमेशा ही अच्छा लगता था दूर जाने के बाद भी, उस दिन पहली बार मुझे लगा की वो चेहरा मुझ पर हंस रहा है, जिसे मैंने हमेशा अपने आँखों में बसा के रखा था पहली बार मुझे लगा की उस चेहरे पर एक झन्नाटे दार थप्पड़ मारूं, और पूछूं की आखिर कार तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया|
मेरा गुस्सा और मेरे अन्दर समाया उबाल, उसदिन मेरे चेहरे पर नजर आने लगा था, और आता भी कैसे नहीं मैंने हमेशा ही तो अपने गुस्से को दबाने की कोशिश की, मैं हकीकत जानना चाहता था, लेकिन जो भी उसने कहा मैंने उसे हकीकत नहीं माना, मेरी ऑंखें गुस्से से लाल हो चुकी थी और चेहरे से बहता पसीना बता रहा था की मैं कितना परेशान था, मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था, मैं इस सच और झूठ के बीच में नहीं जीना चाहता था, उसने सब कुछ मेरे लिए किया या फिर मुझे धोखा दिया, काफी देर तक मैं पागलों की तरह अपना सर पटकता रहा मगर कोई फायदा नहीं हुआ. लेकिन कुछ देर में ही मेरे शैतानी दिमाग में वो ख्याल आ ही गया, मैंने मन ही मन कहा "सच्चाई कल मुझे पता चल जाएगी, मरते वक्त कोई इन्सान झूठ नहीं बोलता, कल मैं तुम्हारा खून कर दूंगा और सिर्फ तुम्हारा ही नहीं अपना भी लेकिन इससे पहले कुछ बातें तो कर लूँ तुमसे, आखरी बार तुम्हारी तन्हाइयों के आँचल में बैठ के रो लूँ, और हाँ मरने से पहले एक बार तुम्हे जरूर गले लगाऊँगा|"
मैंने उसकी एक पुरानी तस्वीर ढूँढ ली और उससे बातें करने लग गया मेरे आँखों में हमारी कहानी एक आने वाली फिल्म की 'प्रमोसन ऐड'" की तरह जल्दी-जल्दी और बार बार आ रही थी "क्यों दूर हो गए तुम मुझ से" मैंने उसकी तस्वीर से बातें करनी शुरू कर दी. "कल बताऊँगा की कितना रोया था मैं, तुमसे अलग होने के बाद, मरने से पहले एक बार हम फिर साथ में रोयेंगे| यार एक बात बताओ मुझे! ख़ुशी में हँसना ही सिर्फ प्यार होता हैं? हम तो हर गम में साथ रोये थे, वो क्या कम था? अलग होने के बाद अक्सर सोचते हैं, अगर हम साथ होते तो ये करते वो करते, यहाँ जाते वहां जाते, वैसे जिंदगी साथ गुजारना भी तो किस्मत का खेल है न, तुम ने मुझे हर वक्त कहा था की जो किस्मत में होगा वही मिलेगा मगर मैंने कभी तुम्हारी नहीं सुनी, मैं तो हमेशा सोचता था की हम दोनों अलग होने के लिए बने ही नहीं थे, वैसे मैं ही पागल था, क्या तुम्हे याद है वो दिन, अरे यार मैं तुमसे क्या चीज पूछने लगा ये बात तो तुम्हे याद जरूर होगी| जब उसदिन हम मंदिर गए थे तो वो पुजारी मुझ से कह रहा था की ये लड़की तुम्हे छोड़ के चली जाएगी, और मैं उसकी बातों पे जोर जोर से हंसा था और तुम सिर्फ मुस्करा गयी थी, आज सोचता हूँ काश मैं उसी दिन समझ जाता| तुम जानती हो मैंने तुम्हे समझाने की कितनी कोशिश की मगर तुम नहीं समझी काश तुम मेरा प्यार समझ जाते, मैंने तो हमेशा सही सोचा था न? की तुम मेरी भलाई के लिए मुझ से अलग हो रही हो|
हर चीज याद है मुझे शायद तुम्हे भी होगी, वो देर रात तक तुम्हारा SMS करना, मैं सो जाता तुम फिर भी SMS करती रहती थी, और जब सुबह मैं तुम्हे जगाता था तुम्हारे exams के टाइम पे और तुम फिर से सो जाते थे मैं फिर से जगाता था तुम फिर से सो जाते थे, सब कुछ याद है तुम रोज दिन में मुझे फोन करके पूछते थे खाना खाया या नहीं, क्या खाया, ये खालो वो खालो, कितनी फ़िक्र करते थे तुम मेरी सब याद है मुझे यार, सब कुछ याद आता है|
मुझे पता है मैंने भी तुम्हारा दिल कई बार दुखाया है मगर उसकी सजा इतनी बड़ी तो नहीं होती, तुम ने कितनी बार समझाया ना मुझे, की पैसे कैसे बचाने है, कैसे खर्चा चलाना है, मैं ही नहीं समझा, तुम मेरी लिए सिर्फ गर्लफ्रेंड नहीं थी यार उससे कही बढकर थी और ये बात तुमने भी तो कही थी, फिर ऐसा क्या हो गया था, शायद तुम मुझे गलत समझ रही थी, मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा की मैं तुम्हे अपने पास कैद करके रखूँ , मैं ऐसी सोच नहीं रखता, मगर अब इन सब बातों का क्या फायदा, अब तो सारे गिले शिकवे ख़त्म होने ही जा रहे हैं, याद है तुमने हमारे घर के बारे में क्या कहा था शायद नहीं होगा तुमने कहा था बाबू तुम सिर्फ एक छोटा घर बना दो खुशियाँ तो हम मिलकर भर ही देंगे, और मुझे थो शादी के बाद लड़की ही पसंद थी और और हम दोनों ने ये भी तय किया था की हम एक बच्चा गोद लेंगे. याद है तुम्हे? मैंने तो तुम्हारे सपनो को पूरा करने की हरवक्त कोशिश की है, आज मेरे पास घर तो है मगर वो सूना है, सब कुछ होने के बाद भी अधूरा है, शायद तुम्हे पता नहीं आजतक मैंने किसी और को अपने दिल के करीब नहीं आने दिया पता है क्यों? क्योंकि तुमने कहा था की "मेरे साथ कोई भी खुश नहीं रह सकता" क्या करू मेरी जान मुझे भी तो ये सब करना अच्छा नहीं लग रहा मगर मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता और न किसी के साथ तुम्हे देख सकता हूँ, मैं इन्सान ही हूँ, मेरी भी एक सीमा है, दर्द सहने की, अब नहीं सह सकता, और तुम भी तो मेरे साथ नहीं रहना चाहती, मैं जीना चाहता हूँ मगर इस ख्याल के साथ नहीं की कोई मुझे धोखा दे कर चला गया, तुम मुझे नहीं मारोगी और मैं खुद को नहीं मरना चाहता लेकिन तुम्हे मारने के बाद मैं खुद को मार दूंगा| वो दिन बहुत जल्दी बीत गए, जब हमने बड़े बड़े सपने देखे, बड़े बड़े वादे किये, काश मैं वो टाइम वापस ला पता|"
"चलो यार बहुत बातें हो गयी, अब सो जाते है, जिंदगी की आखरी रात तस्सली से सो जाते हैं, वैसे भी जब से तुमसे मिला हूँ सोया नहीं सही से, पहले कुछ दिन तुम्हारे लाइफ में आ जाने की ख़ुशी में, फिर देर रात तक तुम से बात करता था, मुझे पता है कि तुम तो दिन में सो जाती थी और में ऑफिस में आधी नींद में काम करता था, और फिर जब से तुम मुझ से अलग हो गयी तब से तो नींद आती ही नहीं, न जाने रातों को कितनी बार नींद टूट जाती है, रोज सपना आता है कि मेरी प्यार मेरे पास लौट के आ रहा है मगर आँख खुलते ही फिर से टूट जाता है" ठीक है मेरी जान अब सो जाते है, जिससे बात करनी हो आज कर लेना, कल के बाद तो किसी से बात नहीं कर पावोगे न तुम न मैं न मिलना न बात करना वैसे मैं किसी से भी बात नहीं कर रहा, तुम्हारे सिवा मुझे किसी से बात करना अच्छा नहीं लगता, कल मिलेंगे वैसे पहली बार मुझे एक बदमाश कि शक्ल में देखोगे तो बड़ा अजीब लगेगा न, मुझे पता है तुम आखिर तक सोचोगे कि मैं मजाक कर रहा हूँ मगर में तुम्हारे प्यार कि तरह मजाक नहीं करूंगा, अगर बन्दूक लाऊंगा तो, दोनों को ही खत्म कर दूंगा प्यार से, वैसे मैं भी कल पहली बार किसी को मारने जा रहा हूँ साथ में खुद को भी, मुझे प्रोफेसनल किलर मत समझना, ठीक है अब सो जावो मेरी जान मेरी स्वीट हार्ट गुड नाईट लव यु"
मैं चैन से सोना चाहता था उस आखरी रात को, मगर मुझे नींद नहीं आई, मेरे लिए असली सुकून या तो उसकी बाँहों में था या फिर मौत की बाँहों में, मैंने उसकी यादों से जुडी हर चीज को जला दिया, और फिर कुछ पल के लिए सो गया, लेकिन उस रात मुझे कोई सपना नहीं आया, अगली सुबह में उठा ठीक 6:30, बिना काम के भी इतनी जल्दी उठ गया, लेकिन काम था मेरे पास, कल रात जो भी बकवास की थी उसकी फोटो के सामने, उसके बारे में भी तो सोचना था, मैंने अपने आप से कई सवाल पूछे "क्या मैं वो सब करूंगा, क्या मैं उसे मारूंगा" मेरे जबाब हाँ था मैं, जिसने आज तक उसके बारे में कभी भी गलत नहीं सोचा, बुरा नहीं सोचा वो उसे मरने वाला था, मैं कई घंटों तक अपने दिल और दिमाग के झगड़े के बीच फंसा रहा, कभी मेरा दिल मेरे साथ था तो कभी मेरा दिमाग, आखिर दोनों ही मेरे तो थे, सारी तैयारी पूरी हो गयी दोस्त के घर से बिना उसे बताये रिवाल्वर चुरा ली, और पहुच गया उसके घर, दोपहर की धूप और चारों और सन्नाटा, मैंने दरवाजा खटखटाया, दरवाजा खुलते ही ऐसा लगा, जैसे मैं जन्नत को बड़े करीब से देख रहा हूँ
वो चोंक के बोली "तुम"|
मैंने कहा "हाँ मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाया" उसने मुझे घर के अन्दर बुला लिया, घर में और कोई नहीं था मौका सही था, मुझे ऐसे लगा जैसे वो मेरा प्यार पहले से ही मेरा इंतजार कर रहा था|
"क्यों आये मेरे पास" "मैं तुमसे नहीं मिलना चाहती" वो मुझ से 10 फीट की दूरी से पूछे जा रही थी|
मैं कुछ देर चुप रहा फिर बोला "आखिरी बार मिल रहे है हम, उसके बाद हम दोनों किसी से भी नहीं मिल पाएंगे, मैं हम दोनों को मारने आया हूँ, बस एक बार गले लगा कर मुझे हकीकत बता दो की तुमने मुझ से कभी प्यार किया भी या फिर सिर्फ धोखा किया"
"पागल हो गए हो क्या, वैसे मजाक अच्छा है" वो हँसते हुए बोली|
"यकीन नहीं आ रहा है तुम्हे, ये देखो" मैंने रिवोल्वर बहार निकल के उसे दिखाई, कुछ देर सारे कमरे में सन्नाटा छा गया, उसके चहरे पर कई शक और आश्चर्य के निशान एक साथ नजर आये, लेकिन कुछ देर बाद वो बोली,
"तुम ऐसे कब से हो गए, और तुम सच सुनना चाहते हो या फिर मेरे से अपने बारे में ये झूठ की मैं तुम से प्यार करती हूँ"
मैं मुस्कराया फिर बोला "नहीं सच क्यों कि दोनों का अंजाम एक ही है हम दोनों कि मौत, प्यार करते भी हो फिर भी हम इस दुनिया मैं नहीं रहेंगे और नही करते तो भी, ये मत सोचना कि तुम्हे मारने के बाद मैं खुद को नहीं मारूंगा, अगर तुम्हे ऐसा लगता है तो तुम पहले मुझे मर देना और फिर खुद को, मैं आज भी यकीन कर सकता हूँ तुम्हारा"
"वो कुछ देर तक बोलती रही कि "तुम पागल हो गए हो, वापस चले जाओ" मगर मैं नहीं माना वो आखिर कार मेरे गले से लग ही गयी, कितने सालों बाद मेरा प्यार मेरी बाँहों में था, ये मेरे लिए जन्नत कि सैर से कम नहीं था|
हम दोनों वैसे ही गले मिले जैसे दो बिछुड़े प्यार करने वाले मिलते है, ये मेरे लिए बहुत अच्छा था, लेकिन जो आगे होने वाला था शायद वो बहुत बुरा था, वो चिल्ला के बोली "नफरत करती हूँ में तुमसे, मैंने कभी प्यार नहीं किया तुमसे, अब मुझे मार लो मैं झूठ कहकर नहीं मरना चाहती"
मेरी सारी ख़ुशी पल भर में ख़त्म हो गयी, वो मुझ से दूर चली गए अभी तो पास आई थी, मैं उसका सही से अहसास भी नहीं कर पाया, मैंने कहा नहीं ऐसा मत कहो "प्लीज"|
वो एक कोने में जा कर रोने लग गयी, फिर मुझे अहसास हुआ काश वो रिवोल्वर नकली नहीं होती तो मैं सारी गोलियां उसकी जगह अपने पे ही चला देता, मगर मैं तो असली रिवोल्वर ले के ही नहीं गया, मुझे अहसाह हुआ की लोग आत्महत्या क्यों कर लेते है, और सही होते है वो लोग जो रिवोल्वर जैसी चीजें अपने पास रखते हैं, मेरे पास होती तो अभी कम आ जाती, लेकिन अब मैंने अपने आप को सच में ख़त्म करने की सोच ली, उस दिन मुझे लगा अगर ऊपर वाला एक रास्ता बंद करता है तो दूसरा खोल देता है मैंने बिना उसे बताये किचन में रखा गेस का सिलिंडर खोल दिया, वो जान गयी की मेरी रिवोल्वर में गोली नहीं है, और वो ये भी जान गयी कि मैंने मरने कि तैयारी अब तो पूरी कर ही ली है, वो एक बार फिर चिल्लाई|

"पागल हो गए तुम, ऐसे क्यों किया बाबू" मगर बहुत देर हो चुकी थी, शायद मैं फिर एक बार धोखा खा रहा था कि वो मुझे प्यार करती है, लेकिन मैं धोखे में नहीं रहना चाहता था मैं गैस जला कर कमरे मैं आग लगा चूका था मैंने सिर्फ जल्दी से दरवाजा खोला और उसे बहार धक्का दे दिया, वो बाहर से चिल्लाती रही 'प्लीज दरवाजा खोलो बाबू दरवाजा खोलो" उसके बाद उसकी आवाज सुनाई नहीं दी या फिर मुझे कुछ भी याद नहीं है
कुछ दिन बाद मैं हॉस्पिटल में था, और वो मेरे पास खड़ी थी उन्ही कपड़ों में जो मुझे बहुत पसंद थे, मैं ऊपर वाले का शुकरियादा भी नहीं कर पाया था की मुझे अपने जिन्दा रहने पर गुस्सा आने लगा, क्योंकि वो एक स्मार्ट से लड़के के साथ मुझे मिलने आई थी, मुझे लगा यही मेरा दुश्मन है लेकिन तब तक वो कुछ बोल पड़ी और जो भी बोली वो मेरे लिए बहुत अच्छा था "भैया आप जाओ मैं बाद में आ जाऊंगी"|

Wednesday, April 20, 2011

इन आखों में आंसू

"इन आखों में आंसू कल भी थे  और आज भी हैं
बस फर्क इतना है कि,
कल तेरे आने कि ख़ुशी में जल्द बह गए,
और आज तेरे जाने के गम से आँखों में बस गए|"

"न जुबां बोलती है न हाथों  से कलम चलती है,
कुछ दर्द और दे जाती गर तू जिन्दगी,
तो शायद हम शायर ही बन जाते|"

"तुजे कैसे दिल से निकाल ले, तू तो दिल ही है
पर तुम कैसे हमें भूलोगे, ये भी एक बात है
उजालो में मत चलना, ये मेरे दिल
क्योकि ये नाचीज तो तेरा ही साया है"

"रब्ब से ज्यादा तुझे माना,
जिंदगी से ज्यादा तुझे चाहा,
हर पल फलक तक तेरे साथ चलने की चाह की,
और तुम दुनियां की भीड़ में शामिल हो गए|"

..........अजनबी शहर .............

बारहवीं की पढाई ख़त्म करने के बाद दिल में कई सपने लिए मोहन शहर को आ गया, गरीब माँ बाप ने काफी पढाई करवा ली थी अब उसे घर की रोजी भी कमानी थी और अपनी आगे की पढाई भी देखनी थी| अब तक की पूरी जिंदगी गाँव के पहाड़ो और नदियों के बीच गुजारने के बाद मोहन को शहर की जिंदगी कुछ ज्यादा ही बदली नजर आ रही थी, कई चीजे जो एकदम बदल गयी जैसे गाँव की चिड़ियों के शोर मछरों के शोर में बदल गया, और जहाँ सुबह पेट खाली करने दूर खेतों में जाना पड़ता था, उसकी जगह किचेन के बगल में टोइलेट, वो अलग बात थी की उसकी लाइन खेतों के रास्तों से कई लम्बी थी, ऐसे कई और चीजें भी गयी थी लेकिन कई ऐसे चीजे भी थी, जिनके बदले में सिर्फ अकेलापन ही मिला था, शहर के लोग गाँव के लोगों की तरह कहाँ अपनापन दिखाते है, पर उसे अपनापन नहीं अपनी मंजिल के रास्ते और उन सपनो के रास्ते ढूँढने थे जो उसने देखे थे और उसके माँ बाप ने देखे थे| कुछ पैसे साथ में लेके आया था तो एक सस्ता सा कंप्यूटर का कौर्स भी शुरू कर लिया था उसने, और कुछ दिनों में एक नौकरी भी मिल गयी थी रात की, तनख्वाह ज्यादा नहीं थी, मगर काफी थी 3500 रुपये महीना, कम फैशन करके, सस्ते में गुजरा चलाकर कुछ पैसे बच जाते थे मोहन के जो वो घर भेज देता था| जोड़, घटाना, गुना, भाग सारा गणित लगा कर अगर देखा जाया तो सब ठीक ही चल रहा था| लेकिन ये उसकी मंजिल नहीं थी|
कुछ महीने इस शहर में और बीत गए थे मोहन को, अब वो काफी अच्छी तरह जान चूका था इस बड़े शहर को, लेकिन शहर को जानने के लिए उसने धक्के बहुत खाए थे, अगर कभी किसी से अशोक नगर का रास्ता पूछा तो किसी ने अशोक विहार भेज दिया और न्यू कैलाश नगर के बदले पुराने कैलाश नगर भेज दिया गया, अगर किसी जवान लडके लड़की से मुग़ल गार्डेन के बारे में पूछा तो जबाब मिला "प्यारे बुद्धा गार्डेन के बारे में पूछता तो सब बता देते"
खैर जो भी हो, समय इन्सान को सब सिखा देता है और मोहन भी समय से बहुत कुछ सीख चूका था, कोर्स ख़त्म हो चुका था, एक अच्छी सी जॉब भी मिल गयी थी सेलरी ज्यादा नहीं थी पर कंपनी अच्छी थी, कई बुरे तो बहुत ही अच्छे दोस्त मिल गए थे उसे, लेकिन इन सब बातों के बीच मोहन एक चीज नहीं सीख पाया जो बहुत जरूरी थी, झूठ बोलना या फिर यूँ कहें की गलत बात से नजर हटा देना, जो इस बड़े शहर के लिए बहुत जरूरी थी, यहाँ लोग गलतियाँ कम करते है लेकिन समाज में होने वाली गलतियों से नजरें अक्सर कर लेते है और यही तो है इस शहर में जीने का महामंत्र|
वो सुबह कुछ अलग नहीं थी और न ही मोहन ने कुछ अलग किया था वही पुराना, सुबह उठा, नहाया फिर नाश्ता और लंच एक साथ तैयार कर के घर से ऑफिस के लिए निकल गया, रास्ते में फिर अपने दोस्त विजय से मिला लेकिन विजय के लिए भी ये सुबह अलग नहीं थी दोनों रोज की तरह कुछ देर बस का इंतजार करने के बाद बस में चढ़ गए|
बस एक भीड़भाड़ से भरे इलाके से निकल कर मेन रोड पे आ गयी, बस में शिष्टाचार तो जैसे बस की सीट के नीचे दुबक के बैठ गया था, बुजर्ग लोग खड़े थे वो बात अलग थी की ये उनकी खड़े होने की उम्र नहीं थी, और जिनकी थी वो जवान लड़कियाँ और लड़के बस की सीटों पर आराम फरमा रहे थे| इस भीड़ से भरे महौल्ले से निकलते हुए बस कई जगह रुकी, कई सवारियां उस पर सवार हुई, कुछ नए चेहरों के साथ बाकी पुराने चहरे मोहन और विजय इन सब को पहचानने लगे थे, बस में कई बार छीना झपटी, धक्का मुक्की, कई बार तो जेब भी साफ हो जाती थे लेकिन ये सब उन दोनों ने सिर्फ सुना था न देखा था और न कभी उनके साथ ये सब हुआ था|
"भाई रे थोडा आगे खिसक जा" एक धक्का सा मोहन को लगा और साथ में ये कड़वे से शब्द|
विजय ने कोई जबाब नहीं दिया, सिर्फ आगे को खिसक गया, न उसे किसी से लड़ना था न बहस करनी थी| बस अब मेन रोड का सफर तय करने के बाद फिर से एक भीड़ वाले इलाके में से गुजरने लगी बस में धक्का मुक्की कुछ ज्यादा बढ गयी|
विजय और मोहन आस पास के ही ऑफिस में काम करते थे, तो बस का सफ़र भी दोनों का एक साथ होता था, लेकिन अभी उनका स्टॉप आया नहीं था, फिर भी ये भीड़ उन्हें धकेलते हुए दरवाजे के पास ले गयी, कम चोडी रोड, भीड़ से भरी हुई, बस की रफ़्तार कुछ कम हो गए दोनों तरफ के दरवाजे खुले हुए थे अचानक कोई जोर से विजय को धक्का देता हुआ गेट से बहार को कूदा, विजय समझ गया कुछ तो गलत हुआ है, उसने अपनी जेब पर हाथ लगाया "मोहन वो मेरे पैसे निकाल के भाग गया" विजय चिलाता हुआ बस से बाहर कूद गया, विजय के बस से कूदते ही बस में शोर हो गया, मोहन ने बस रोकने के लिए कहा मगर जल्दी से बस रुकी नहीं, जेबकतरे के साथ भागने की कोशिश में था मगर मोहन ने उसे अंदर की ओर खिंचा लेकिन सारी भीड़ केवल तमाशा देखती रही काफी देर तक दोनों के बीच में जंग चलती रही मगर आख़िरकार जेबकतरा मोहन पर हल्का सा चाकू का वार करके भाग गया, आखिरकार बस रुक ही गयी, विजय भी हांफता हुआ बस के पास पहुँच गया खाली हाथ, और कमाल तो देखिये पुलिस भी घटना स्थल पर एक मिनट से पहले पहुच गयी, मोहन जेबकतरों को अच्छी तरह से पहचानता था जो विजय की जेब से दस हजार रुपये लेकर भाग गए वो वही लोग थे जो जानबूझकर उसके घर के पास के बस स्टॉप के पास में हमेशा भीड़ जमा कर बैठे रहते थे, विजय के लिए वो सिर्फ दस हजार रुपये नहीं बल्कि उसके घरवालों की लाखों उम्मीदें, उसके भाइयों की स्कूल की फीस थी, एक सवाल था जिसका जवाब उसे घर वालों को देना था| कुछ देर में भीड़ जमा हो गयी पुलिस वाले ने जांच शुरू कर दी
"आप पहचानते हैं उन्हें" पुलिस वाले ने विजय से पूछा|
"सर मैं जानता हूँ उन्हें" मोहन ने पुलिस वाले की आँखों में झांककर कहा
"और किसने देखा" पुलिस वाले ने भीड़ की तरफ देखते हुए कहा, लेकिन किसी ने जवाब नहीं दिया
मोहन ने एक आश्चर्य भरी नज़रों से सारी भीड़ को देखा मगर किसी ने जवाब नहीं दिया, ऐसा नहीं था की बस में सवार भीड़ मोहन को जानती नहीं थे, मोहन एक एक कर सब को देखता रहा बगल में खड़ी उस लड़की को जिसको एक दिन उसने हाथ पकड़ कर बस में चढ़ाया था, उस 50-55 साल के इंसान को जिसके पास छुट्टे न होने पर एक दिन मोहन ने उसकी टिकट खुद ले ली थी, उन बुजर्ग लोगों को भी जिनके लिए रोज वो अपनी सीट छोड़ देता था, और उन जवान लड़कों को जिनके साथ उसकी दोस्ती सी हो गयी थी, लेकिन इस शहर में इतना भाई चारा कम पड़ गया| फिर उसने विजय को देखा, पुलिस वाले को देखा और एक गहरी साँस लेकर अपना सर खुजलाने लगा|
"जब तक मैने देखा वो भाग गया, चेहरा नहीं देख पाया मैं उसका" भीड़ में से किसी ने कहा, वो वही आदमी था जो गेट के पास सब कुछ देख रहा था मोहन के दिल में आया कि एक खींच के उसके कान पर दे मगर मजबूर था|
"आप थाने चलिए मेरे साथ" पुलिस वाले ने विजय और मोहन को देखते हुए कहा|
और फिर शुरू हो गए थाने के चक्कर, पुलिस ने भी कुछ नहीं किया, जिन्होंने जेब लूटी थी वो कुछ दिन के लिए गायब हो गए और उनके साथी अब भी मोहन और विजय को घूरते थे, लेकिन दोनों मजबूर एक अजनबी शहर में क्या कर सकते थे, ये शहर तो यहाँ के रहने वालों के लिए भी अजनबी है फिर वो तो बाहर से आये थे|
मोहन विजय के वो पैसें तो वापिस नहीं ला पाया, मगर कई चीज खो चुका अच्छाई से विश्वास, अपने ऑफिस में अपनी तर्रक्की "कंपनी आपको अपने काम के पैसे देती है न कि दूसरों कि भलाई करने के " यही कहा गया था उसे ऑफिस में| और जो लोग उसदिन खुदगर्ज हो गए थे वो लोग भी सर झुका के बात नहीं कर रहे थे, अब उसने उस बस से जाना भी छोड़ दिया.
समय बीत गया इस अजनबी और बड़े शहर में लगे घाव अब धीरे धीरे भरने लग गए, और इस शहर में जीने का महामंत्र भी वो सीख गया था, आखें बंद करके चलने का, और अच्छी जॉब मिल गयी थी, मोटर साइकिल भी खरीद ली थी अगर लाइफ की अकाउंट बुक देखें तो लाभ वाला हिस्सा ज्यादा बढ़ गया था, खुशिया जो मिलती जा रही थी घर पर शादी की बातें भी होने लगी थी, और अब विजय भी उन सब बातों को भुला चूका था, घर वालों को कहीं से जुगाड़ कर के पैसे भेज दिए थे आजतक उन्हें नहीं बताई वो बात.
मोहन उस दिन ऑफिस से छुट्टी पर था, कुछ काम था उसे कोलेज केम्पस में, वो सुबह घर से निकला, केम्पस में अपना काम निपटाया और फिर वापिस घर आ गया, लंच किया और फिर कुछ देर के लिए सो गयी, नींद गहरी आ गई, लेकिन कुछ देर बाद दरवाजे की घंटी की आवाज जोर जोर से उसके कानों में गूंजने लगी, उसने दरवाजे खोले तो दरवाजे पे एक लड़की खड़ी थी.
"शायद आप मुझे पहचानते हैं" वो लड़की कुछ देर मोहन को देखने के बाद बोली,
"शायद" मोहन ने कुछ याद करते हुए कहा
"सिर्फ शायद, आप भूल रहे हो, सुबह जो कुछ भी मेरे साथ आपने सब कुछ देखा था, जब उन लोगों ने धक्का दे कर मेरी गले की चैन खिंच कर भाग गए थे, आप वहीँ दूर से देख रहे थे आपने कुछ बोला तक नहीं, आपने उन्हें देखा उनकी बाईक का नंबर भी देखा होगा फिर भी आपने पुलिस को कुछ बताया भी नहीं" लड़की की आँखों में गुस्सा था|
"नहीं मैंने कुछ नहीं देखा था, वैसे भी मुझे इन सब बातों से कोई मतलब नहीं है, सॉरी मैं कुछ नहीं कर सकता अगर आपको कुछ और काम हो मुझ से तो आप अन्दर आकर बता सकती है" मोहन अपनी बात ख़त्म करके अपने घर के अंदर चला गया|
"झूठ बोल रहे हो तुम, डरते हो न" वो लड़की कमरे में घुसते हुए चिल्लाई
"हाँ झूठ बोल रहा हूँ, और मैं सच बोलना भी नहीं चाहता, दुबारा गवाही नहीं देना चाहता मैं, और फिर दूं भी क्यों" मोहन पलटकर उसकी तरफ बढ़ा|
"इंसानियत के लिए, आप का ये फर्ज नहीं है, मैं आपके पास में ही रहती हूँ, किस बात के पडोसी हैं आप" वो इंसानियत का पाठ ऐसे इन्सान को समझा रही थी, जिसके वो जख्म अभी भी हरे थे आज तो कुछ और हरे हो गए थे जो जख्म उसे इस शहर के अकेलेपन ने दिए थे|
"हाँ सही कहती हो तुम, लेकिन दो साल पहले, भी तुम मेरी पडोसी थी और इन्सान ही थी, जब उसदिन बस में मेरे दोस्त की जेब खाली कर दी गयी थी, तब आपको इंसानियत नहीं सूझी थी" मोहन को लगा जैसे उसने ये छुट्टी अपने जख्म हरे करने के लिए ही की थी|
मोहन की बात सुनकर लड़की का सर झुक गया, मोहन पलट कर खिड़की के पास गया, कुछ देर बाहर झाँकने के बाद फिर से बोलने लगा, उसे पहली बार किसी मुजरिम पर दिल की भडास निकलने का मौका मिला|
"मैं उस दिन एक आस भरी नज़रों से सारी बस की सवारियों को देख रहा था कोई तो आगे आएगा मगर सबने मुह फेर लिया, उस दिन से मैं इस शहर मैं जिंदगी जीने का नजरिया बदल दिया, आपके साथ जो कुछ भी हुआ उस पर मुझे बहुत अफ़सोस है, मगर आज आपको भी ये अहसास हो गया होगा की हमारी एक खुदगर्जी से दूसरा कितना टूट जाता है, उसकी जिंदगी जीने के रस्ते बदल जाते है, उसदिन आप भी उसी बस में सवार थी अगर आपने हिम्मत की होती, इस खुदगर्ज शहर की जिंदगी से हटकर सोचा होता तो आपके साथ ऐसा होता ही नहीं, शायद कई और लोगों के साथ भी, उसदिन मैंने पहली बार अच्छे काम की सजा पाई थी, और अगर मैं इंसानियत के रास्ते पे चलकर एक बार आपकी बात मान भी लेता हूँ तो उससे क्या हो जायेगा, इक राय मैं तुम्हे देता हूँ दो चार दिन हाथ पैर मारोगे और फिर थक जावोगे ऑफिस और घर में बातें सुनोगे, लोग बातें बनायेगे इससे अच्छा यह है की चुपचाप घर बैठ जाओ और सब भूल जाओ"
मोहन को कोई जबाब नहीं मिला उससे पीछे मुड कर देखा तो कोई जबाब देने वाला ही नहीं था वो लड़की जा चुकी थी, मोहन ने बाहर आकर बालकोनी से नीचे झाँका तो बाहर तेज धुप थी और दूर दूर तक कोई नहीं था|
वो लड़की उसकी बात सुने बिना ही लौट गयी थी, उसके अंदर हिम्मत भी नहीं थी ये सब सुनने की, ये शहर सिर्फ शहर ही होता अजनबी शहर नहीं अगर हम ये जान लेते की दूसरों की छोटी छोटी प्रोब्लम्स शायद हमारी बड़ी प्रोब्लम्स हो सकती है, अगर हम इक दुसरे की मदद करना नहीं भूलते तो कोई दूसरी गवाही देने से नहीं डरता|

Saturday, April 16, 2011

तेरे जाने से


तेरे जाने से जिंदगी इस तरह खफा हो गयी|
खिली धुप में भी जैसे अँधेरी रात हो गयी||
हमको भी जुदा कर, क्या है तेरी रुखी जिंदगी में|
सुबह की कली और शाम की यादें कहने लगी||


आरजू थी तेरी की मैं बदल जाऊं|
मेरे बदलने से पहले तेरी जुस्तजू बदल गयी||
मर जाना भी क्या आसान है|
अब मौत भी कहती है में तेरी लिए नहीं||


खुश रहना भी अब एक धोखा होगा|
मेरे गम से शायद तेरी जिंदगी चल रही है||
भूलूँ मैं तुजे किस कदर ये 'जिंदगी|
तेरी यादों से मेरी दुनियाँ चल रही है||


तेरे प्यार में, मैं जलता चिराग था|
गम में चिराग का धुंआ हूँ मैं|
इस बात से खुश हूँ की आज भी तेरे साथ हूँ|
तेरी सांसो की हवा में बसा अहसास हूँ मैं||


Saturday, April 9, 2011

छोटी बहू

दीनानाथ अब गाँव बाजार में सीना तान के चलने लगा था, क्यों न चले, बेटे की शादी दुबारा जो कर ली थी उसने, वो अलग बात है की पहली वाली बहू अब उनके पास नहीं थी, उसका बेटा हर्ष भी नयी दुल्हन मनीषा के साथ आनंद और हर्ष के साथ दिन काट रहा था और घरवाले नयी दुल्हन और हर्ष को चिढ़ा-चिढ़ा कर मजे ले रहे थे, जो घर मेले के तरह कई दिनों से शोर शराबे से गूंझ रहा था, वहां अब मेले अंत की तरह शोर और उत्साह कम होता जा रहा था, इस भरे परिवार के बीच में नयी दुल्हन मनीषा कभी अकेलापन महसूस करती तो कभी अपने आप को मेले में खड़ा महसूस करती. एक अच्छे घर की बेटी की तरह उसने अपने सारे दुःख और सुख इस परिवार के साथ बाँटने शुरू कर दिए|

लेकिन जैसे जैसे समय बीत रहा था एक डर उसके दिल में अपनी जगह बनाता जा रहा था, और क्यों न हो जिन लोगों को वो भगवान की तरह पूज रही थी वो इस काबिल थे नहीं, जो सच उसे अपने ससुराल वालों के बारे में शादी से पहले पता न थे वो धीरे धीरे उसे पता चल रहे थे और उसका अकेलापन बढ़ा रहे थे| और सच भी तो कुछ ऐसे ही थे,
दीनानाथ रूढ़ समाज में जीने वाला जिसकी दो पत्नियाँ थी, एक का तो अभी अभी १-२ साल पहले ही देहांत हुआ था और हर्ष उसी का बेटा था, हर्ष की भी ये दूसरी शादी थी, शादी करना और करवाना शायद दीनानाथ के लिए एक खेल हो गया था, हर्ष की पहली बीबी को दीनानाथ और उसकी बीबी ने सता सता के भाग जाने को मजबूर कर दिया था, एक और बेटा था जो अच्छी जिंदगी जी रहा था, सही कमाता था और उसके ससुराल से खुश रहने का सामान भी काफी मिला था|
मनीषा का डर बढ़ता जा रहा था कभी कम भी हो जाता था जब घर वाले प्यार जता देते थे, लेकिन समय के साथ वो प्यार रूखेपन में बदलने लगा, शादी गर्मियों में हुयी थी तब घर का मौसम ठंडा था लेकिन अब सर्दियाँ आने को हो रही थी तो उसकी बजह से घर का मौसम गर्म होने लगा था, जेठानी और सास के फरमान बढ़ने लगे थे, मनीषा उन सब का दिल अपने काम से जीतने की कोशिश करने लगी लेकिन जो लोग घर आने वाली नयी बहू को दहेज़ का पिटारा समझते हों उनके लिए काम और इज्जत कहाँ माईने रखती है|

बरसात का मौसम जोरों पर था और ससुराल वालों के ताने मेंढक की टर्र टर्र से तेज होते जा रहे थे, मनीषा खुद को ससुराल में तो कभी महसूस ही नहीं कर पाई, सपने टूट जाने के बाद भी खुश रहने की कोशिश कर रही थी लेकिन, अब तो हद हो गयी थी हर्ष ने भी उसका साथ छोड़ दिया था उसने भी कभी उसके साथ सहानूभूति नहीं जताई, ये वक्त हमें तोड़ के रख देता जब वही इंसान हमारे बारे में नहीं सोचता जिसके लिए हम सारी दुनिया छोड़ देते है और कैसा वो इन्सान होता है जो ये भूल जाता है की कोई मुसाफिर दूर देश से चल कर सिर्फ ओर सिर्फ उसी के लिए आया है, इंसान का दर्द तब हद से बढ़ जाता है जब उसके पास दर्द बाँटने वाला कोई नहीं रह जाता, वही हाल मनीषा का था, न बाहर वालों से अपना दर्द बाँट सकती थी न अपने माईके वालों से, गरीब जो थे, सिर्फ बड़ा घर देख कर कुछ जाने बिना अपने बेटी की शादी कर दी, अब उसकी रातें करवटों में और दिन अंधेरो में गुजरने लगे|.

कुछ और समय बीत गया, उसकी सारी कोशिशें नाकाम हो गयी, घर वालों ने उसके लिए प्यार को नौकरी से निकाल देने का फैसला कर लिया था शायद, झुंझलाहट और अकेलेपन से उसकी हालत पतझड़ के पेड़ की तरह हो गयी, काफी कमजोर हो गयी थी वो होती कैसे नहीं, अब तानो के साथ साथ सास और जेठानी से घुसे भी मिलने लगे थे वो भी फ्री ऑफ़ कास्ट, दूसरी और उसकी जेठानी के ठाट देखिये महारानी पैर पे पैर रख कर मजे लेती थी और मनीषा को इतना सब करने के बाद सूखी रोटियां खानी पड़ती थी और कभी तो भूखे पेट भी सोना पड़ता था ये सब उसके साथ शायद इसलिए हो रहा था क्योंकि वो अपनी जेठानी की तरह दहेज़ का पिटारा साथ नहीं लायी थी, कैसे जीते है लोग ऐसे समाज में जहा बेटी और बहू को एक नजर से नहीं देखा जाता, जहाँ बहू को सिर्फ गरीबी मिटाने और दहेज़ पाने का जरिया समझा जाता है|

दो घंटे बीत गए मनीषा को करवट बदलते बदलते, आखिरकार उसने हर्ष को जगाने के लिए उसने हाथ बड़ा ही लिया|
"सुनो" मनीषा ने हर्ष को हिलाते हुए कहा| मगर वो बेहोश सोता रहा|
"क्या हुआ? क्यों शोर मचा रही हो" मनीषा की काफी कोशिशों के बाद हर्ष ने करवट बदलते हुए कहा|
"दर्द हो रहा मुझे" मनीषा दर्द में बिलखती हुई बोली|
"उधर दवाई पड़ी है ले लो" हर्ष ने लापरवाही से कहा|
"ठीक है पर सुबह डॉक्टर के पास तो ले जावोगे ना" मनीषा को महसूस हुआ की उसका ये दर्द काफी बड़ा है, वो दवाई उठाने चारपाई से उठते हए बोली|
"पागल हो गयी, इतनी छोटी से बात के लिए डॉक्टर के पास नहीं जाते" हर्ष ने ये जाने बगैर की मनीषा को दर्द कितना है अपनी बात कह दी, और दूसरी और करवट बदल कर सो गया, मनीषा पांच मिनट तक उसे लाचारी से देखती रही फिर अपनी दवाई ली और कई देर तक करवटें लेने के बाद उसे भी नींद आ गयी, उसने अपने दर्द को गंभीरता से लिया तो था लेकिन उससे कई बड़े घाव देने वाला था उसका ये दर्द उसे|
सुबह मनीषा को फिर से दर्द महसूस होने लगा कई देर तक आनाकानी चलती रही उसे डॉक्टर के पास ले जाने के लिए, मगर जब पानी सर से ऊपर हो गया तो उसे पास के डॉक्टर के पास ले जाया गया| खबर अच्छी थी, वो माँ बनने वाली थी| मगर डॉक्टर की माने तो उसकी हालत बच्चे को जन्म देने लायक थी ही नहीं, उसका शरीर एकदम सूखी बेल की तरह हो गया था|

"बहू को खाना नहीं देते क्या" डॉक्टर ने दीनानाथ और उसकी बीबी सरला पैनी नजर से देखा|
"नहीं बेटा, खाती नहीं है" दोनों एक सुर में बोले|
डॉक्टर ने कागज का टुकड़ा लिया कुछ लिखा और बोला "ये लो ये दवाइयां और खुराक बहू को जरूर खिला देना और हाँ ज्यादा काम मत करने देना"|
डॉक्टर की बात सुनके दोनों ने उसे ऐसे घूरे जैसे वो एक फैक्ट्री के मालिक हो और डॉक्टर ने मजदूरों को छुट्टी पर भेजने के लिए कह दिया हो फिर मनीषा उनके लिए मजदूर से कम तो थी नहीं, फिर भी दोनों ने झूठी हाँ में सर हिलाया और घर की और चल दिए|
ये उस घर में रहने वालों के लिए नहीं बाहर वालों के लिए ख़ुशी की खबर थी और मनीषा के लिए भी नहीं, जहाँ वो मर जाने का फैसला करने वाली थी नयी मुसीबत उसके गले आ गयी थी, वो जिस दुनिया में खुद नहीं जीना चाहती थी वह अपने बच्चे को कैसे जन्म दे सकती थी, उसके लिए अब वो समय आ गया था जब वो जी भी नहीं पा रही थी और मर भी नहीं सकती थी| लेकिन एक उम्मीद काफी होती है जीने के लिए, ये बच्चा उसके लिए उम्मीद बन के आ रहा था| हाँ दिक्कतें बहुत थी, सास ससुर ने डॉक्टर के पास सर तो हिला दिया था लेकिन न  उसे दवाइयां लाकर दी और न काम से दूर रखा| हाँ नया ताना जरूर मिल गया था उन्हें उसे सुनाने के लिए " कामचोर को नया बहाना मिल गया"

ख़ुशी आने से पहले एक और दर्द मनीषा के दिल पे पत्थर मार के चला गया, उसका बच्चा होने से पहले हर्ष शहर को चला गया, क्या गुजारी होगी उसके दिल पर जब उसे हर्ष की सबसे ज्यादा जरूरत थी वो उसे छोड़ के चला गया, आखिर वो दिन आ ही गया| घर में फिर से बधाइयों का ताँता लगा गया, लोग बधाइयाँ देते और सरला कहती "काहे की ख़ुशी, ये तो पहले ही कंगाल कर गया हमें"

घर वालों के चहरे पर झूठी ख़ुशी दिखाई देने लगी, मनीषा को शायद शादी के बाद पहली बार कुछ ख़ुशी मिली थी, एक उम्मीद जग गयी थी दिल में उसके, लेकिन ये क्या ऊपर वाले गम का नया पत्थर उसके ऊपर फेकने वाला था, ये कहें कि फैंक चुका था लेकिन उसे अहसास देर में हुआ, उस रात ही उसे पता चला कि उसका अभी अभी जन्मा बेटा रोहित, अपंग है| वो उस लाखों हजारों महिलाओं कि भीड़ में शामिल हो गयी थी जो अपंग बच्चों को जन्म देते है, वो मजबूर होते हैं, आवाज नहीं उठा पाते, और हम उनकी मजबूरी को कभी समझ नहीं पाते और न कोशिश करते| और क्या उस बच्चे की गलती होती है जो जन्म लेने से पहले ही इस समाज के गलत बर्ताव की बजह से अपंग हो जाता है, हमे क्या हक़ है, अपने रूढ़ परम्पराओं और गलत विचारों से किसी की जिंदगी बर्बाद करने का|

वो रात मनीषा के लिए क़यामत ले के आ गयी थी, मुश्किलों से लड़ने के लिए जिस चीज पे आस लगायी थी वो ही उसे बे आस कर के चली गयी, उसके सपने, बीते पल  एक फ्लेश बेक की तरह उसकी आँखों में चलने लगे, शायद वो हर उम्मीद खो चुकी थी, उसे लगा जिस समाज में वो नहीं जी पाई उस समाज में उसका अपंग बच्चा कैसे लडेगा|

उसने एक बहुत बड़ा फैसला कर लिया था आखरी फैसला अपने आप को मिटाने का और साथ में अपने बच्चे को भी| वो बच्चे के पास लेट गयी उसे गले लगाया, बाहर सन्नाटा था और कमरा उसकी सिसकियों से गूंज रहा था, मनीषा ने शरीर में खड़े होने की ताकत तो नहीं थी फिर भी मनीषा ने अपनी मौत के लिए कुछ सामान जुटा ही लिया एक रस्सी और एक कनस्तर, मरने के लिए क्या चाहिए इन्सान को, बस दो चीजें| रस्सी को छत पर बांधने के लिए ऊपर तो चढ़ी मगर सही से उतर नहीं पाई लेकिन उसने अपनी मौत का इंतजाम पूरा कर लिया था| पहले इस जहाँ से विदा लेने की बारी रोहित की थी, वो फिर खड़ी हुयी, लड़खड़ाते हुए रोहित की ओर बड़ी मगर उसके शरीर ने उसका साथ नहीं दिया वो जोर से लड़खड़ाकर दीवार पे जा गिरी और इस बार ऐसे गिरी की फिर उठ न पायी, कुछ देर तक उसकी सिसकियाँ कमरे में गूंज रही थी मगर थोड़ी देर में सन्नाटा छा गया मनीषा हमेशा के लिए खामोश हो गयी| उसका कोई सपना पूरा नहीं हो पायी और न आखरी काम वो रोहित को नहीं मार पायी शायद अब रोहित को इस समाज से लड़ना था|

दीनानाथ का घर एक बार फिर शोर से भर गया कहीं झूठी सिसकियाँ तो कही अपने ही हाथों से किये खून पे रोने की आवाजें, सही तो था मनीषा ने आत्महत्या नहीं उसे तो समाज ने मारा था दीनानाथ के घरवालों ने मारा था. लेकिन मनीषा की मौत से घर में कुछ तो बदल गया था ये मजबूरी थी या फिर प्यार लेकिन जो भी था अच्छा था, दीनानाथ और उसकी पत्नी सरला ने रोहित को अपने गले लगा लिया था, अब तो कई बार रोहित की बजह से बड़ी बहू सुषमा को भी डांटने लगे थे|

घर के नौकरानी मर चुकी थी, घर का काम अब सुषमा को करना पड़ता था तो सास बहू के झगड़े बढ़ने लगे, सास बहू का पुराना गठबंधन टूट गया, वो क्यों सुनती अपनी सास की वो तो दहेज़ का पिटारा लेकर आई थी, और दोनों बेटे घर आये और दोनों ने हमेशा ही अपनी माँ बाप को गलत बताया, कभी साथ नहीं दिया उनका, दीनानाथ और सरला को मनीषा की कमी महसूस होने लगी, फिर एक दिन आया की घर सूना हो गया सास बहू का झगडा बढ़ गया और बच्चे परदेश को चले गए हर्ष ने भी उन का ही साथ दिया और रोहित को छोड़ कर परदेश चला गया|

सारा घर सूना हो गया, रह गए तो सिर्फ दीनानाथ, सरला, अपंग पोता और उनके बुरे कर्म, वो बुरे कर्म जो अब हर बार उन्हें अहसास दिला रहे थे कि वो कितने बुरे थे| सात साल बीत गये लेकिन उनके बच्चे लौट कर नहीं आये, लेकिन फिर भी दोनों ने जीने का जरिया संभाल के रखा था उनका पोता, लेकिन शायद उनकी हैवानियत का कर्ज अभी अदा नहीं हुआ था|

दोपहर का समय था, दीनानाथ और सरला घर के किसी कोने मैं बैठ कर अपने आज और कल की बातें कर रहे थे, अचानक कुछ जलने की बू दोनों को लगी, दोनों को लगा शायद बाहर कुछ जल रहा है, मगर जब कुछ आवाजें भी आने लगी तो दोनों घर से बहार को झांके, तो वो क्या नजारा था आग बाहर नहीं उन्ही के घर को जला रही थी, इससे पहले की दोनों कुछ कर पाते आग ने सारे घर को चपेट में ले लिया|
दोनों एक सुर में चिल्लाये "रोहित" |
रोहित दूसरे कमरे से लचकता हुआ बाहर आया| लेकिन आग की लपटे और भयंकर हो गयी वो जल्दी से लडखडाता हुआ पानी की टंकी की तरफ भागा मगर पहुँच नहीं पाया, लडखडाकर सीढ़ियों में गिर गया, पहली बार उसे अपने अपंग होने का अहसास हुआ, लेकिन शायद ही वो ये अहसास अब किसी के साथ बाँट सकता, वो सीढ़ियों से गिरता हुआ धधकती हुआ आग के बीच जा कर गिर गया| दीनानाथ और सरला दोनों चिल्लाये|
"रोहित रोहित! कोई तो बचाओ हमारे पोते को" लेकिन अभी तक आस पास कोई नहीं पहुंचा काफी देर तक दोनों चिलात्ते रहे मगर कुछ देर बाद दोनों भी शांत हो गए, आग ने सारे घर को अपनी लपेट में ले लिया|

जब आँख खुली दोनों ने खुद को अस्पताल में पाया, गाँव वालों ने दोनों को तो बचा लिया था मगर रोहित का कहीं भी पता नहीं था, अब दोनों फिर से अकेले हो गए, दीनानाथ ने सरला का हाथ थामा और कहा "शायद ये हमारी हैवानियत का कर्ज था, अगर हमने मनीषा के साथ बुरा बर्ताव नहीं किया होता तो न वो आत्महत्या करती और न ही रोहित आग में गिरता" फिर दोनों जोर जोर से रोने लगे, लेकिन न अब कोई सिसकियाँ सुनने वाला था न आंसू पोंछने वाला|