Friday, March 18, 2011

शायद मैं एक लड़की हूँ|

जर्रा जर्रा जब जहाँ का तेरा ही निशां है,
फिर अलग सा क्यों मुझे बनाया है|
खुशियों की कश्ती क्यों मेरी सागर में खो गयी|
क्योंकि शायद मैं एक लड़की हूँ|
नजराने पेश करूँ क्या मैं खिड़की हूँ?

आने पे उसके सबने खुशियाँ मनाई थी,
मेरे आने से फिर क्यों बत्तियां बुझाई थी|
बाबा ने भाई को जब स्कूल भेजा था,
मैंने तो अक्षरों को सिर्फ खेतों में देखा था|
बचपन ये सारा मेरा ऐसे क्यों रो गया|
क्योंकि शायद मैं एक लड़की हूँ|
नजराने पेश करूँ क्या मैं खिड़की हूँ?

योवन के रंग में जब सबने खेली थी होली,
माँ बोली आजा बच्चा बैठ जा तो डोली|
खुशियों के जब भी जग ने दिए जलाये थे,
मैंने तो आंशु अपने चूल्हे सुखाये थे|
मेरी जवानी सारी क्यों  रातों में खो गयी|
क्योंकि शायद मैं एक लड़की हूँ|
नजराने पेश करूँ क्या मैं खिड़की हूँ?

हर लम्हा हर सांस जब तेरा ही साया है,
फिर खुदा मैंने क्यों तुझको न पाया है|
क्योंकि शायद मैं एक लड़की हूँ|
नजराने पेश करूँ क्या मैं खिड़की हूँ?



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